महिला सशक्तिकरण का रहस्य

महिला सशक्तिकरण की जब भी बात की जाती है, तब सिर्फ राजनीतिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण पर चर्चा होती है पर सामाजिक सशक्तिकरण की चर्चा नहीं होती ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। उन्हें सिर्फ पुरुषों से ही नहीं बल्कि जातीय संरचना में भी सबसे पीछे रखा गया है। इन परिस्थितियों में उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात बेमानी लगती है, भले ही उन्हें कई कानूनी अधिकार मिल चुके हैं। महिलाओं का जब तक सामाजिक सशक्तिकरण नहीं होगा, तब तक वह अपने कानूनी अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर सकेंगी. सामाजिक अधिकार या समानता एक जटिल प्रक्रिया है, कई प्रतिगामी ताकतें सामाजिक यथास्थितिवाद को बढ़ावा देती हैं और कभी-कभी तो वह सामाजिक विकास को पीछे धकेलती हैं।





प्रश्न यह है कि सामाजिक सशक्तिकरण का जरिया क्या हो सकती हैं? इसका जवाब बहुत ही सरल, पर लक्ष्य कठिन है। शिक्षा एक ऐसा कारगर हथियार है, जो सामाजिक विकास की गति को तेज करता है. समानता, स्वतंत्रता के साथ-साथ शिक्षित व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों का बेहतर उपयोग भी करता है और राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त भी होता है। महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शिक्षा से वंचित रखने का षडयंत्र भी इसलिए किया गया कि न वह शिक्षित होंगी और न ही वह अपने अधिकारों की मांग करेंगी, यानी, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखने में सहुलियत होगी. इसी वजह से महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है. हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं स्वाभाविक सामाजिक विकास के कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, जिस कारण बालिका षिक्षा को परे रखना संभव नहीं रहा है. इसके बावजूद सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से शिक्षा को किसी ने प्राथमिकता सूची में पहले पायदान पर रखकर इसके लिए विशेष प्रयास नहीं किया. कई सरकारी एवं गैर सरकारी आंकड़ें यह दर्शाते हैं कि महिला साक्षरता दर बहुत ही कम है और उनके लिए प्राथमिक स्तर पर अभी भी विषम परिस्थितियाँ हैं। यानी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए जो भी प्रयास हो रहे हैं, उसमें बालिकाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करने की सोच नहीं दिखती। महिला शिक्षकों की कमी एवं बालिकाओं के लिए अलग शौचालय नहीं होने से बालिका शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और प्राथमिक एवं मिडिल स्तर पर बालकों की तुलना में बालिकाओं की शाला त्यागने की दर ज्यादा है। यद्यपि प्राथमिक स्तर की पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही कई कमियां हैं।






प्राथमिक शिक्षा पूरी शिक्षा प्रणाली की नींव है और इसकी उपलब्धता स्थानीय स्तर पर होती है। इस वजह से बड़े अधिकारी या राजनेता प्रारम्भिक शिक्षा व्यवस्था की कमियों, जरूरतों से लगातार वाकिफ नहीं होते, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। अत: यह जरूरी है कि प्रारंभिक शिक्षा की निगरानी एवं जरूरतों के प्रति स्थानीय प्रतिनिधि अधिक सजगता रखें. चूंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की स्थिति बदतर है, इसलिए गांवों में बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने और बच्चों में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने पर खास जोर देने की जरूरत है।

73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज व्यवस्था के तहत निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों ने भी पिछले 10-15 वर्षों में शिक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य नहीं किया. सामान्य तौर पर ऐसा देखने में आया है कि पुरुष पंचायत प्रतिनिधियों ने निर्माण कार्यों पर जोर दिया क्योंकि इसमें भ्रष्टाचार की संभावनाएं होती हैं। शुरुआती दौर में महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने भी कठपुतली की तरह पुरुषों के इशारे एवं दबाव में उनकी मर्जी के खिलाफ अलग कार्य नहीं किया। आज भी अधिकांश जगहों पर महिला पंच-सरपंच मुखर तो हुई हैं पर सामाजिक मुद्दों के प्रति उनमें अभी भी उदासीनता है। इसके बावजूद महिला पंचों एवं सरपंचों से ही सामाजिक मुद्दों पर कार्य करने की अपेक्षा की जा रही है क्योंकि सामाजिक सशक्तिकरण के लिहाज से यह उनके लिए भी जरूरी है।





इन विषम परिस्थितियों के बावजूद प्रदेश के कई पंचायतों में आशा की किरण दिख रही है। मध्यप्रदेश में सबसे पहले पंचायत चुनाव हुआ था इसलिए बदलाव की बयार भी सबसे बेहतर यहीं दिख रही हैं। झाबुआ, सतना, होशंगाबाद, हरदा सहित कई जिलों के कई पंचायतों की महिला सरपंचों एवं पंचों ने सामाजिक मुद्दों पर कार्य शुरू कर दिया है। खासतौर से शिक्षा के प्रति उनमें मुखरता आई है। अंतत: महिलाओं ने इस बात को समझना शुरू कर दिय है कि उनकी वास्तविक सशक्तिकरण के लिए शिक्षा एक कारगर हथियार है. शिक्षा को अपनी प्राथमिकता सूची में पहले स्थान पर रखने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों का स्पष्ट कहना है कि शिक्षा में ही गांव का विकास निहित है और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों को ही वास्तविक रूप से सशक्त माना जा सकता हैं।

राजू कुमार



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