गरीबी को लीपने-पोतने की साजिश




अब यह सिध्द हो रहा है कि सरकार ने गरीबी और उपेक्षा की वास्तविक स्थिति को छिपाने, लीपने और पोतने की भरसक कोशिश की है। गरीबी की रेखा के सर्वेक्षण का प्रारूप ही इस तरह से बनाया गया कि कम से कम लोग इस सूची में आ जायें। इसमें स्वास्थ्य और बंधुआ मजदूरी को गरीबी का सूचक ही नहीं माना गया। और जिन्हें गरीबी का सूचक माना गया है उनमें से पांच पर सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में यह स्वीकार करना पड़ा कि वे अमानवीय और गलत हैं।  

मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के गांधीला गांव की एक झोंपड़ी में आदिवासी और परित्यक्ता हल्की बाई रहती है। पन्द्रह रूपये की दिहाड़ी पर उसे महीने में लगभग आठ दिन की मजदूरी मिल पाती है। मजदूरी के दौरान एक दुर्घटना में घायल होने पर इलाज कराते-कराते वह 31 हजार रूपये की कर्जदार हो गई। इसके अलावा न तो उसके पास कोई जमीन है, न ही जीवनयापन का दूसरा स्रोत। इन निर्धनतम् परिस्थितियों में रहने के बावजूद हल्की बाई को गरीबी की रेखा के सर्वेक्षण में 19 अंक मिले हैं। इसके मायने यह है कि उसे सम्पन्न मानते हुये गरीबी की रेखा की सूची से बाहर कर दिया गया है। इसी तरह पोटिया गांव में रहने वाली विधवा महिला रज्जोबाई को अब तक अति गरीब की श्रेणी में रखते हुये सस्ते राशन वाली अन्त्योदय अन्न योजना का लाभ दिया जा रहा था परन्तु इस बार उन्हें 17 अंक मिले हैं। जिसके आधार पर वह गरीबी की रेखा की सामान्य सूची से ही बाहर हो जायेगी। यह हल्की बाई और रज्जो बाई के केवल दो अनुभव मात्र नहीं हैं बल्कि इस तरह के दस लाख से ज्यादा परिवार मध्यप्रदेश में हैं जो पात्र और जरूरतमंद होने के बावजूद गरीबी की रेखा की सूची में अव्यावहारिक चयन सूचकों और विसंगतिपूर्ण प्रक्रिया के कारण नहीं आ पायेंगे। सर्वेक्षण की प्रक्रिया में 13 सूचकों की एक प्रश्नावली तैयार की गई थी। हर प्रश्न के पांच विकल्पों को 0 से 4 अंक दिये गये थे। यह स्पष्ट था कि सबसे कम अंक पाने वाले 37.43 प्रतिशत लोगों को गरीब होने की पहचान मिलेगी।यदि सूचकों का व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि सूचकों में भूमि के आकार को ही महत्वपूर्ण माना गया है। उस भूमि से उत्पादन कितना हो रहा है और वह कितनी उपजाऊ है, इस पक्ष को सर्वथा नजर अंदाज किया गया है। गरीबी की रेखा का सर्वेक्षण लोगों के हित में हो, इस उद्देश्य से किये गये जनतांत्रिक प्रयास के दो वर्षों के अध्ययन से पता चला कि 58 फीसदी गांवों के परिवारों के परिप्रेक्ष्य में भूमि के आकार से ज्यादा उनकी उत्पादन क्षमता को मापना जरूरी है। बैतूल के रैयतवाड़ी गांव के कोरकू आदिवासी सम्भू के पास 3 एकड़ पहाड़ी, असिंचित, पथरीली और अनुपजाऊ जमीन है परन्तु गरीबी की परीक्षा में 18 अंक देकर उसे अनुत्तीर्ण कर दिया गया। पिछले 7 वर्षों में मध्यप्रदेश में विभिन्न योजनाओं और स्वच्छता अभियान में साढ़े छह सौ रूपये का अनुदान देकर सरकार ने गांवों में 11 लाख शौचालय बनवाये है। इन शौचालयों को अब सरकार ने गरीबी का सूचक बना दिया है और जिन घरों में शौचालय बने हुये पाये गये उनके लिये उस योजना का लाभ एक अभिशाप बन गया क्योंकि ऐसे परिवारों को 3 से 4 अंक दिये गये। इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण यह भी है कि व्यक्ति के पास यदि पक्का मकान है तो भी उसे अधिकतम अंक मिलेंगे। व्यावहारिक स्तर पर ढाई लाख परिवारों पर इस सूचक का सीधा प्रभाव पड़ा है क्योंकि गरीब परिवारों को सरकार की ओर से 20 वर्ग मीटर का घर बनाने के लिये इंदिरा आवास योजना के अन्तर्गत 20 हजार रूपये की सहायता दी जा रही है। जिन परिवारों ने इस योजना का लाभ लिया उनके लिये यह सूचक नकारात्मक ही रहा और पक्का मकान (और पक्के मकान में शौचालय) होने के कारण वे गरीबी की पहचान से वंचित हो गये। यहां सवाल यह है कि क्या एक मर्तबा इंदिरा आवास बन जाने से कोई भी परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर उठ जायेगा। स्वाभाविक है कि यह कोई ऐसी योजना नहीं है जिससे व्यक्ति को कृषि  भूमि की तरह नियमित उत्पादक लाभ मिल सके इसलिए पक्के मकान की परिभाषा को इंदिरा आवास से अलग करके देखा जाना चाहिए था। व्यापक स्तर पर इन मकानों का निर्माण कार्य पूर्ण करने के लिये उन्हें अपनी जमीन और बैल भी बेचने पड़े, भ्रष्टाचार के कारण पूरी राशि नहीं मिली और फिर भी बड़ा परिवार होने के कारण वे इसका उपयोग नहीं कर पाये। बैतूल के दूनी गांव के खुड्डी आदिवासी ने दो वर्ष पहले पलायन के दौरान जहां कृषि  मजदूरी की थी, वहां से उसकी गरीबी को देखते हुये सात कपड़े मिले थे जो अब भी उसके पास हैं परन्तु इन कपड़ों के कारणा अब वह गरीब नहीं रहा (ऐसा सरकार मानती है)।  खुड्डी को सर्वे में 18 अंक मिले हैं जिसके कारण वह सूची से बाहर  हो गया। सरकार के हिसाब से 4 से ज्यादा कपड़ों वाला परिवार गरीब नहीं रह जाता है। हर गांव वाले और मानवीय संवेदनाओं में आस्था रखने वाले व्यक्ति ने सूचकों में कपड़ों की उपलब्धता वाले बिन्दु की आलोचना और विरोध किया है। कारण यह है कि गरीब परिवारों को त्यौहारों या अन्य समारोहों के अवसरों पर बेहतर आर्थिक स्थिति वाले परिवारों से इस तरह का सहयोग मिल ही जाता है।  गरीबी की परिभाषा तय करने वाले विशेषज्ञों के लिये यह महत्वपूर्ण है कि लोगों को एक समय का भोजन मिलता है या वे दोनों समय पेट भर लेते हैं। यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि भोजन की गुणवत्ता और पौष्टिकता का स्तर क्या है। सूचकों के अनुसार लोग चाहे भीख मांगें, कचरे में से खाने के टुकड़े बीन कर पेट भरें या फिर महिलायें अपना शरीर बेचकर या मैला ढोकर भूख मिटायें, यदि उनका वर्ष भ्र पेट भर रहा है तो उन्हें चार अंक दिये जायेंगे।हालांकि बैतूल की सिमोरी पंचायत के भूमिहीन रामप्रसाद आदिवासी के पास जीवनयापन का कोई साधन नहीं है पर साईकिल और रेडियो होने के साथ-साथ दो बेटों के स्कूल जाने के कारण वह गरीबी की रेखा की सूची से बाहर हो गया। वर्तमान समय में पांच सौ से एक हजार रूपये कमाने वाला व्यक्ति भी सौ रूपये का रेडियों, आठ सौ रूपये की टीवी और साईकिल रख सकता है, परन्तु इन वस्तुओं के एवज में गरीब लोगों को 3 से 4 अंक दिये गये हैं। शिक्षा के मामले में यह मान लिया गया है कि जो शिक्षित है वह गरीब नहीं हो सकता। जिस परिवार में बेकाम और अनुत्पादक स्नातक भी है उन्हें 3 से 4 अंक दिये गये हैं। इस सूचक में सरकार ने सामान्य स्नातक और तकनीकी स्नातक को एक ही तवज्जों दी है जबकि यह किसी भी नजरिये से व्यावहारिक नहीं है। जीवनयापन के साधनों के सम्बन्ध में सरकार ने कारीगरों को सुरक्षित और स्थाई रोजगार में लगा हुआ माना है और वेतन पर काम करने वाले व्यक्तियों (सरकारी और निजी नौकरी) को एक समान अंक दिये गये हैं। गरीबी के प्रश्न पत्र में सरकार ने एक पहेली को भी स्थान दिया है और यह पहेली है कि लोग किस तरह की सरकारी सहायता चाहते हैं। जो जितनी ज्यादा सहायता की कल्पना करेगा उसे गरीबी की रेखा से उतना ही दूर कर दिया जायेगा और जो कहेगा कि सरकारी मदद चाहिए वह तो सूची से पूरी तरह बाहर होगा। लोगों को लगा कि शायद सरकार कुछ मदद देने वाली है इसलिये उन्होंने लाख रूपये की जरूरत दर्ज करा दी और जो अत्यन्त गरीब हैं वे तो अब  कल्पना ही नहीं कर पा रहे हैं कि सरकार उनके कल्याण के लिये कुछ करेगी, इसलिये सहायता की कल्पना भी नहीं करते हैं। ऐसे में उन्हें तीन और चार अंकों से नवाजा गया। गांव में लोग किस तरह की कर्ज व्यवस्था में फंसे हुये है। इसका अध्ययन न तो सरकार ने किया है न योजना आयोग ने। जिन लोगों ने बैंक से कर्ज लिया है उन्हें अमीर मानते हुये तीन अंक दिये गये है और जमीनी सच्चाई यह है कि आदिवासी इलाकों में बैंकों ने जमकर कर्ज बांटा है। लेकिन गरीबी में कोई अंतर नहीं आया। झाबुआ की पेटलावद तहसील में ही तीन साल में बैंकों ने 12 करोड़ रूपये बांटे और आज वहां के ज्यादातर आदिवासी डिफाल्टर हैं या अपना घर, जमीन बेंचकर बैंक का कर्ज चुका रहे हैं। इसी तरह जिस पर कर्ज नहीं है वह अमीर है, जबकि इसका एक पक्ष यह है कि जो बिल्कुल ही निर्धन है वह न तो कर्ज लेता है न उसे कोई कर्ज देता है। यहां शायद कोई यह प्रश्न खड़ा कर सकता है कि क्या गरीबों की पहचान की इस प्रक्रिया में कोई संभावना नहीं है? बेशक संभावना है बशर्तें इसके स्वरूप का निर्धारण मानवीय नजरिये से किया जाता। अभी यह स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि सरकार अपने अलग-अलग विभागों के कामों के बारे में यह सिध्द करना चाहती है कि शौचालय और इंदिरा आवास से गरीबी दूर हुई है, हर गांव में शिक्षा गारण्टी शाला से लोग आत्मनिर्भर हो गये हैं। साथ ही इस प्रक्रिया में यह जिम्मेदारी कहीं तय नहीं की गई कि यदि किसी अमीर या अपात्र व्यक्ति का नाम सूची में पाया गया तो किस पर क्या कार्रवाई की जायेगी। सबने अपना काम पूरा किया है पर संवेदनशील भूमिका निभाये जाने की जरूरत अभी शेष है अन्यथा वास्तव में गरीब व्यक्ति इन तेरह सूचकांकों के फेर से आने वाले कई वर्षों तक नहीं निकल पायेगा।

सचिन कुमार जैन 

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