यही जीना है तो मरना क्या है

नमस्कार दोस्तों नहीं सोच में आपका स्वागत है यह मेरी पहली पोस्ट है


दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची है की आज में भारत में कुछ ऐसी जगह है जहाँ बुनियादी सुविधा का अभाव है


ऐसी एक समस्या पर आप का ध्यान केंद्रित करना चाहता हूँ इस Article  की लेखिका रोली शिवहरे है






21वीं सदी में जब लोग चांद पर घर बनाने की बात कर रहे हैं तब कौन सोच सकता है कि प्रदेश में भी ऐसे कई जिले हैं जिनके गांव में पहुंच पाना आज भी आसान नहीं है। ऐसे ही छिंदवाड़ा जिले के तामिया विकासखण्ड के पातालकोट के जड़ गांव आज भी सरकार और लोगों की नजर से बचे हुये है। भले ही सरकार ने पातालकोट को एक प्रयत्न स्थल कर दिया हो परन्तु आज भी लोगों को मिलने वाली बुनियादी सेवाएं काफी दूर हैं।
इस गांव की कुछ दिन पहले कपशीला नाम की महिला को अपना प्रसव कराने के लिए 3 किलोमीटर दूर जंगल और पहाड़ी पार करके स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुंचने पड़ा क्योंकि वो जानती थी कि यदि यहां पर उसे कुछ हो जाता है तो उसके पास सिवाय मौत को गले लगाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।
ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं को सुनिश्चित करने के लिए तीन स्तरीय ढांचे विकसित किये गये हैं। परन्तु आज भी 57 प्रतिशत गांवों ऐसे हैं जिनसे उप स्वास्थ्य केन्द्र की दूरी 3 किलोमीटर है। इसी प्रकार ऐसे 55.6 प्रतिशत गांव हैं जिनसे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की दूरी 10 किलोमीटर पर है। इस DLHS-3 के आंकड़ों में सबसे दुखद बात यह है कि केवल 13.5 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में महिला चिकित्सक उपलब्ध हैं।






वर्ष 2007 में मण्डला के खटिया गांव में शिवकली बाई आदिवासी की मातृ मृत्यु का मामला सामने आया। यदि प्रदेश में इसकी स्थिति का आंकलन किया जाए तो वर्ष 2008-09 में 1558237 महिलाओं का प्रसव हुआ जिनमें से स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार केवल 1267 महिलाओं की ही मृत्यु हुई परन्तु यदि राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में प्रति 1 लाख में 379 महिलायें दम तोड़ती हैं। इस हिसाब से वर्ष 2008-09 में 5905 महिलाओं की मृत्यु हुई इसका मतलब साफ है कि स्वास्थ्य विभाग महिलाओं की मृत्यु के आंकड़ों को कम बता रहा है। इसके अलावा यदि 2 वर्ष के आंकड़ों पर नजर डाले तो यह संख्या वर्ष 2007-08 में 6916 और वर्ष 2006-07 में 6731 थी। जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007-08 में यह 1422 और 2006-07 1619 महिलाओं की मृत्यु हुई। याने कि पिछले तीन वर्षों में 19552 महिलाओं की मृत्यु हुई और सरकार ने केवल 4308 को ही दर्जकिया है। तय है कि इस तरह की मौतों को पंजीकृत ना करके सरकार किसी भी तरह की जवाबदेही से बचना चाहती है। शिवकली आदिवासी का मामला भी प्रसव मौत की सूची में दर्ज नहीं किया गया था।


सरकार आज संस्थागत प्रसव की बात कर रही है जहां चारों ओर गंदगी बिखरी हुई है। जहां दवाओं का कोई अस्तित्व नहीं होता और अस्पताल में चिकित्सक होते हैं। प्रदेश के 48 जिलों कुल 278 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं इन केन्द्रों में स्त्री विशेषज्ञ, बाल विशेषज्ञ इत्यादि होना आवश्यक है। इन 48 जिलों के स्वास्थ्य केन्द्रों में कुल 49 पद स्त्री विषेषज्ञों के लिए हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश उसमें केवल 5 ही भरे हैं शेष 44 अभी तक रिक्त पड़े हैं। ऐसी स्थिति में क्या किसी महिला को सुरक्षित मातृत्व का अधिकार कैसे मिले? शिवकली के परिवार के अनुसार जब भी स्वास्थ्य केन्द्र जाओ तो यही पता लगता है कि अस्पताल का हर कोई मीटिंग में जिला या विकासखण्ड गया है। ऐसी स्थिति में अस्पताल में मरने से बेहतर है कि घर में ही जीवन त्याग दिया जाये।


उल्लेखनीय है कि गर्भधारण करने वाली हर महिला गर्भावस्था, प्रसव और प्रसव के बाद ऐसी शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं का सामना करती है जिससे उसकी किसी भी क्षण मृत्यु की संभावना बन सकती है। मध्यप्रदेश में आधी से ज्यादा यानि कि 59 प्रतिशत महिलाए खून की कमी का शिकार हैं यानि इतनी संख्या में गर्भधारण करने वाली महिलाआेंं को ज्यादा संरक्षण और स्वास्थ्य सुविधाओं की, देखभाल की आवश्यकता है परन्तु जमीनी सच्चाई कुछ और ही है।


प्रदेश में ग्रामीण इलाकों में आज भी 59.2 प्रतिशत घर पर हो रहे हैं। शिवकली का प्रसव घर में हुआ था। उसकी जंचकी गांव की ही जेठीबाई ने करवाया थी। भारत सरकार द्वारा चलाई गई 'राष्ट्रीय मातृत्व सहायता योजना' के अंतर्गत घर में प्रसव होने पर महिला को प्रसव को 8-12 सप्ताह के पहले रूपये 500 की आर्थिक सहायता प्रदान की जायेगी। परन्तु प्रदेश की स्थिति यह है कि वर्ष 2007-08 में केवल 2 प्रतिशत महिलाओं को ही इस योजना का लाभ दिया गया है। सरकार द्वारा इस योजना को शुरू करने का मकसद है कमजोर और वंचित समुदाय की गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशु  के गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना ना करना पड़े। आमतौर पर महिलाएं प्रसव का समय आने तक शर्म करती रहती हैं। जिसकी वजह से प्रसव के समय जटिलताएं बहुत बढ़ जाती हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर यह योजना शुरू की गई थी कि महिलाओं को प्रसव के तुरन्त बाद काम पर ना जाना पड़े परन्तु इस योजना के कुछ बिंदु ऐसे पता चलते हैं कि सरकार सुरक्षित मातृत्व का अधिकार सुनिश्चित करने के बजाये संस्थागत प्रसव के लक्ष्यों को पूरा करना चाहती है।


विडम्बना यह है कि अब भी सुरक्षित मातृत्व का अधिकार जीवन का बुनियादी अधिकार नहीं है। यदि कुछ खोजना है तो तीन नीति निर्देशक तत्वों में सुरक्षित मातृत्व के विषय को खोजना पड़ेगा जिसमें राज्य के कार्य निश्चित किए गए है। संविधान कहता है कि यदि राज्य लोगों के जीवन स्तर और स्वास्थ्य को सुधारने के लिए प्रयास करेगा, यदि किसी मानव अधिकार का उल्लंघन होता है तो वो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय जा सकते है। परन्तु न्यायालय नीति निर्देशक तत्वों के उल्ललंघन पर कार्यवाही नहीं कर सकती। यही कारण है कि प्रदेश में आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण हर साल होने वाली 6822 मातृत्व मृत्यु को कानून का संरक्षण नहीं मिल पा रहा है। 

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