‘रक्ततबीजों’ के बीच एक अकेली ‘तंदूरी मुर्गी’






शर्म आती है यह बताते हुए कि हम एक सभ्‍य समाज में रहते हैं। रोजाना सामने आतीं दुष्‍कर्म की दर्दनाक खबरें। मन विचलित है। मीडिया के जरिए सड़कों से छन-छनकर आती आवाजें, फांसी दो, नपुंसक बना दो, सख्‍त से सख्‍त सजा दो...। यूपी सरकार पुलिस को दबंग और सिंघम जैसी फिल्‍मों से प्रेरणा लेने की बात करती है, जबकि उसी राज्‍य के एक मंत्री पार्टी कार्यकर्ताओं को तवज्‍जो न दिए जाने पर खाकी वर्दी उतरवाने की धमकी देते हैं। दुष्‍कर्म के सबसे ज्‍यादा मामले वाले मध्‍यप्रदेश में कांग्रेस के एक बड़े नेता यह कहते हैं  कि जब तक औरत तिरछी नजर से नहीं देखेगी, तब तक कोई उसे छेड़ेगा नहीं। टीवी पर बहस के दौरान एक विद्वान का तर्क था कि बॉलीवुड समाज में अश्‍लीलता फैला रहा है। फिल्‍म दबंग-2 का एक गाना देखिए, ‘मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, गटकले सैंयां यार अल्‍कोहल से’। इस तरह के गानों के चलन से रेप होंगे ही। यह खाप पंचायतों की मानसिकता है। खाप ने चाउमीन से लेकर मच्‍छर तक को बढ़ते रेप का कारण बताया है। खाप में बैठे लोग मूर्ख हैं, अशिक्षित हैं पर टीवी पर बहस करने वाले जाने-माने समीक्षक हैं। एंटी रेप बिल पर लोकसभा में 12.15 बजे से शाम 7.40 बजे तक चली बहस में एक सांसद ने कहा कि कंडोम के विज्ञापन बेहद भड़काऊ और रेप के लिए जिम्‍मेदार हैं। ऐसे तर्क उस सच से मुंह छिपाने का सबसे आसान तरीका है, जो यह दिखाता है कि समस्‍या हमारे समाज के भीतर काफी गहरे समा चुकी है। रक्‍तबीज इसी समाज में फैले हैं। इनकी शक्‍ल  भोली-भाली हो सकती है और जानी-पहचानी भी। इन रक्‍तबीजों की संख्‍या को कम करने का कोई समाधान अभी तक सामने नहीं आया है।

इसकी सबसे प्रमुख वजह यह है कि हममे से कोई भी इस समस्‍या की जड़ तकपहुंचने की कोशिश नहीं कर रहा। दुष्‍कर्मी रातों-रात समाज में पैदा नहींहुए। वे सदियों से हमारे बीच रहते आए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि 16 दिसंबर 2012 में दिल्‍ली रेप कांड से पहले इस तरह के मामले सिर्फ एक धटना मानकरनजरअंदाज कर दिए जाते थे। ज्‍यादातर में तो थाने में रिपोर्ट तक दर्ज नहींहोती थी। अब लोगों में इंसाफ के प्रति ललक जगी है। मीडिया का दबाव बना है।दिल्‍ली के गांधीनगर रेप कांड में पुलिस ने पीड़ित परिवार को जिस तरह 2000 रुपए लेकर चुप रहने को कहा, उससे यह बात साफ होती है। चूंकि पीड़ित पांचसाल की बच्‍ची थी और उसे आरोपियों ने ठीक उसी तरह भयंकर यातना दी थी, जिसतरह निर्भया को दी गई थी, सो भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। मीडिया के लिए इसतरह की जनभावनाएं ब्‍लैंक चेक की तरह होती हैं। इसे चौबीसों घंटे भुनायाजा सकता है। पर असल में मीडिया को भी न तो दुष्‍कर्म की बढ़ती घटनाओं केपीछे की वजह पता है और न ही वह इन्‍हें रोकने का हल बता सकी है।

दरअसल रेप की घटनाओं को सिर्फ एक अपराध की नजर से नहीं देखा जा सकता। न ही इसेसिर्फ फांसी या बधियाकरण जैसी कठोरतम या तालिबानी किस्‍म की सजाओं से रोकाजा सकता है। इन घटनाओं का तानाबाना एक व्‍यक्‍ति के जीवन चक्र से जुड़ताहै। उसकी तमाम परवरिश, बचपन से लेकर जवानी तक का माहौल, अपराध की रोकथाम के प्रति समाज व व्‍यक्‍ति विशेष का नजरिया, राजनीतिक विचारधारा, सांस्‍कृतिकव नैतिक मूल्‍य, हमारी शिक्षा प्रणाली सबको समान रूप से देखने की जरूरत है। कोई भी मां अपनी कोख से किसी दुष्‍कर्मी को जन्‍म नहीं देती। हमारासमाज ऐसे लोगों को पैदा कर रहा है और करता रहेगा। हमारी पुलिस ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रही है और देती रहेगी, जब तक कि उसे महिला अधिकारों के प्रतिसंवेदनशील न बनाया जाए। हमारी दलगत राजनीति दुष्‍कर्मियों को यूं हीसंरक्षण देती रहेगी, जब तक कि उन्‍हें निहित स्‍वार्थों के लिए अपराधी किस्‍म के लोगों से मदद लेने से रोका न जाए। दुष्‍कर्म विकसित देशों में भी होते हैं। ब्रिटेन में 2011-12 के दौरान 14767 दुष्‍कर्म हुए, जिसमें से 10 फीसदी से भी कम, यानी 1058 मामलों में ही आरोपियों को सजा हुई। दुनिया के सबसे विकसित और महिला अधिकारों के प्रति उदार देशों में से एक अमेरिकामें तो रेप के 100 में से 3 मामलों में ही आरोपी जेल के सींखचों तक पहुंचताहै। भारत में 2011 के दौरान 14423 रेप हुए, जिसमें 4072 लोगों को सजा हो सकी। इस साल एक जनवरी से 15 अप्रैल के बीच अकेले दिल्‍ली में 463 रेप के मामले दर्ज हुए। ये बीते साल इसी दौरान दर्ज मामलों से 158 प्रतिशत ज्‍यादाहैं। महिलाओं के खिलाफ उत्‍पीड़न के मामलों में 600 फीसदी बढ़ोतरी दर्जहुई है। जरा सोचिए कि रेप के हर मामले की जांच के बाद कोर्ट (चाहे वहफास्‍ट ट्रैक कोर्ट ही क्‍यों न हो) में चार्जशीट पेश करने में कितना वक्‍तऔर कितनी ऊर्जा की जरूरत पड़ती होगी। भारत जैसे देश में जहां हर 20 मिनटमें एक महिला का रेप होता हो, वहां रोजाना 72 लोगों के अपराध को साबित करउन्‍हें सजा (फांसी ?) के तख्‍ते तक पहुंचाना आसान काम नहीं है। खासतौर परतब, जबकि हमारी पुलिस महिलाओं के हक के प्रति जरा भी संवेदनशील नहीं है और नही इस तरह के मामलों की फौरी जांच के लिए प्रशिक्षित है। यह बात सरकार केही संस्‍थान ब्‍यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च ने मानी है, जिनका कहना है कि देशभरमें पुलिस प्रशिक्षण संस्‍थानों की सक्रियता नहीं के बराबर है। इस पर भी पुलिस बल की एक-तिहाई संख्‍या कहीं अफसरों के घर पर तो कहीं वीआईपी ड्यूटी पर तैनात रहती है। वर्दी उतरवाने की धमकी देने वालों की रसूखदारों कीसंख्‍या पुलिसबल से तीन गुनी ज्‍यादा है। सिर्फ पुलिस बल ही क्‍यों, आरोपीको सजा दिलाने के लिए फास्‍ट ट्रैक कोर्ट और जजों की बड़ी संख्‍या मेंभर्ती भी करनी होगी। इसके अलावा न्‍यायिक प्रणाली में भी इस तरह से बदलावकरने होंगे, जिससे एक तय समयसीमा में अपराध साबित हो और अपराधी को सजा होसके।

इससे भी चुनौतीपूर्ण काम है समाज को, उसकी विचारधारा को सुधारना। 2011 में रेप के जितने भी मामले सामने आए, उनमें से 93 फीसदी में आरोपी पीड़ित महिला के परिचित, संबंधी थे। यानी दुष्‍कर्मी हमारे आसपास ज्‍यादा हैं। वास्‍तव में महिलाओं के लिए सम्‍मान की बुनियाद घर पर ही पड़ती है।पत्‍नी के प्रति पति का व्‍यवहार, बहन और अन्‍य स्‍त्री किरदारों के बारे में पुरुष सदस्‍यों की विचारधारा से एक बच्‍चा सीखता है। लेकिन समय के साथउसकी विचारधारा और पुख्‍ता होती जाती है, जब वह स्‍कूल, खेल के मैदान, मोहल्‍ले के नुक्‍कड़, कॉलेज, बाजार और आखिर में अपने दफ्तर में पुरुषबिरादरी को महिलाओं के प्रति हीन, भोगवादी नजरिए में पाता है। कहने को तो देश के सभी अहम संस्‍थानों में विशाखा गाइडलाइन लागू है, लेकिन यह दीवार पर टंगी चिप्‍पी के सिवा और कुछ नहीं। महिलाओं के साथ छेड़छाड़, अश्‍लीलसंवाद, मजाक, जोक्‍स सिर्फ कॉलेज में ही नहीं, बल्‍कि रोजमर्रा की जिंदगीमें हर मोड़ पर शालि होती है। हम मान लेते हैं कि ऐसे मामलों में औरतें शर्म से सिर झुकाकर आगे निकल जाती हैं, शिकायत नहीं करतीं। यह हौसला बढ़ाता है। इस दृष्‍टिकोण को मजबूत करता है कि औरतें कमजोर हैं। इसे मानने मेंकोई बुराई भी नहीं, क्‍योंकि महिलाओं को घर पर भी पर्याप्‍त संरक्षण नहीं है। रोजमर्रा की छेड़छाड़ की घर पर शिकायत महिलाओं पर अनचाही बंदिशें लगासकती हैं। उनका करियर, शिक्षा, स्‍वतंत्रता सब कुछ तबाह कर सकती है। परिवार के पास भी रोकथाम के कदम उठाने के कोई उपाय हैं क्‍या ? शायद नहीं। क्‍योंकि पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में जांच, एफआईआर और पुख्‍ता केस बनाने से कतराता है। वह तभी कदम उठाएगा, जब रेप या यौन उत्‍पीड़न जैसी घटना होजाए। स्‍कूल-कॉलेज और ऑफिस का प्रशासन भी छेड़छाड़ और उत्‍पीड़न के मामलों में कड़ी कार्रवाई से कतराता है। इन्‍हें अपनी छवि धूमिल होने का डर है।यहां भी औरत ही एकमात्र कमजोर कड़ी निकलती है। ‘गलती उसकी भी है’, ‘उसे अपनी गरिमा का ध्‍यान रखना चाहिए’ जैसे जुमले यहीं पर लागू होते हैं। अगर आरोपी रसूखदार तबके से हो, संस्‍थान में ऊंचे पद पर हो, दौलतमंद हो तो आखिर में औरत पर ही कड़ी बंदिशों की आशंका ज्‍यादा है। तो महिलाओं को समाज में संरक्षण आखिर कहां पर है ? निर्भया रेप कांड के बाद मचे हो-हल्‍ले के बाद बीते चार महीने में एक भी ऐसा संगठन आगे नहीं आया है, जो छेड़छाड़, यौन उत्‍पीड़न और रेप जैसे मामलों में पीड़ित महिला को कानूनी, सामाजिक संरक्षणदेने के साथ ही उसके पुनर्वास की बात भी करता हो।

हकीकत यह है कि हमारा समाज यह मानने को राजी नहीं है कि अगर औरत खुद को अभिव्‍यक्‍त करना चाहती है (चाहे वह फैशन, साज-संवार किसी भी रूप में हो) तो वह उसका हक है। अगर औरत अपनी पसंद से जिंदगी जीना चाहे तो वह भी उसका हक है। इसे रेप जैसे घृणित अपराध के लिए उकसावा कतई नहीं माना जा सकता और न ही यह कि अभिव्‍यक्‍ति और जीवन जीने की आजादी से किसी को उसका रेप करने का अधिकार मिल जाता है। इस विचारधारा को होती हैं। कदम घर से उठाना होगा। स्‍त्री के पैरों में पहली जंजीर वहीं परटूटेगी। अब बात करें संरक्षण की। महिलाओं के हकों का संरक्षण पहले परिवार, फिर समाज और आखिर में व्‍यवस्‍था का कर्त्‍तव्‍य है। स्‍त्री हर स्‍पर्श, हर नजर, हर वाक्‍य और हर गतिविधि में अच्‍छे-बुरे का फर्क कर सकती है। यहउसकी नैसर्गिक शक्‍ति है। लेकिन वह चाहकर भी इसे अपने परिवार, संरक्षणकर्ताओं को अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाती, क्‍योंकि उसे इसका हक नहींदिया गया है। उसे मर्यादा, कर्त्‍तव्‍य, गुणों और सीमाओं में बांधकर रखागया है। इन ‘अवांछित स्‍थितियों’ पर यदि स्‍त्री को संरक्षण मिले, समाज वव्‍यवस्‍था का साथ मिले तो ही सख्‍त कानून पर ठीक से अमल हो सकेगा। लेकिनफिलहाल ये मुंगेरी सपने ही हैं। ऐसे पिता, पति, भाई कम ही होंगे, जोस्‍त्री को पूर्ण अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता देने का साहस रखते हों।जातियों, वर्ग, संप्रदाय में बंटे हमारे समाज में भी वह ताकत नहीं कि वह ‘स्‍त्री धर्म’ को ठुकराकर नए जमाने के परिवेश में औरत को देख सके। यहां तकही मौजूदा व्‍यवस्‍था और इसे चलाने वाली सरकारें भी अपने वोट बैंक कोनजरअंदाज कर महिला सशक्‍तिकरण की दिशा में चौतरफा कदम नहीं उठा सकती। महिलाआरक्षण और हाल में जस्‍टिस (दिवंगत) जेएस वर्मा की रिपोर्ट को लेकर मचेघमासान से यह बात साबित हो जाती है। ऐसे में स्‍त्री को अभिव्‍यक्‍ति कीपूर्ण स्‍वतंत्रता देने और उसके खिलाफ हो रहे अपराधों को रोकने की दिशा मेंसरकार पर दबाव बनाने में जुटे एक तबके को अब उन जड़ों पर प्रहार करनाहोगा, जो दुष्‍कर्मियों को हौसला दे रही हैं। ‘वो सुबह’ तभी तो आएगी।


सौमित्र रॉय

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