जनगणना: क्‍या खत्‍म हो जाएंगे छत्तीसगढ़ के आदिवासी ?





बासगुड़ा कभी छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले की समृद्ध बस्ती हुआ करती थी. लेकिन नक्सलवाद का खात्मा करने के लिए शुरू हुए सलवा जुडूम अभियान ने समूची बस्ती को वीरान बना दिया. नक्सली हिंसा और उसे रोकने के लिए सुरक्षा बलों के ऑपरेशन ने जल, जंगल और जमीन को स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों की जिंदगी की चूलें हिला दीं.इस बस्ती में रहने वाले 50 वर्षीय सवरागिरी बीरेंजुल सलवा जुडूम के बाद परिवार समेत पलायन कर आंध्र प्रदेश के चेरला के जंगल में चले गए थे. हालांकि 2011 में वे वापस बासगुड़ा लौटे लेकिन हर कोई बीरेंजुल की तरह खुशकिस्मत नहीं है. इस बस्ती से करीब 250 परिवार विस्थापित हुए थे और कभी 2,500 से अधिक आबादी वाली इस बस्ती में अब बमुश्किल 400 लोग रहते हैं.बदकिस्मती से सलवा जुडूम अभियान ने समाज को दो हिस्सों में बांट दिया. शिविर में जाने वाले आदिवासियों को जहां प्रशासन के साथ माना गया वहीं गांव में अपनी जमीन नहीं छोडऩे की जिद पर अड़े लोगों को नक्सली समर्थक मानकर उन पर अभियान से जुड़े लोगों से ही हमला करवाया गया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट 2011 में सलवा जुडूम अभियान के तहत आदिवासी युवाओं को एसपीओ बनाकर उन्हें नक्सलियों के खिलाफ इस्तेमाल करने को असंवैधानिक ठहरा चुका है. लेकिन तब तक अपनी पुश्तैनी जमीन-मकान के नष्ट होने का आदिवासियों के जीवन पर हुए गहरे असर की छाप दिखने लगी थी.





तेजी से घट रही आबादी दर
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में 2001 -2011 के दशक में आबादी दर में गिरावट के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. जनगणना 2011 के अंतरिम आंकड़ों के मुताबिक, छत्तीसगढ़ की आबादी पिछले एक दशक में 4.32 फीसदी बढ़ी है, जबकि नक्सल प्रभावित आदिवासी इलाकों की आबादी दर तेजी से घटी है. सर्वाधिक प्रभावित जिला बीजापुर है, जहां से सलवा जुडूम अभियान का आगाज हुआ था. 2001 की जनगणना में आबादी वृद्धि दर 19.30 फीसदी थी जो 2011 में घटकर महज 8.76 फीसदी रह गई. आम तौर पर कन्या भ्रूणहत्या जैसी कुरीतियों से कोसों दूर आदिवासी क्षेत्र में यह कमी निश्चित तौर पर चिंता की बात है.
स्त्री-पुरुष अनुपात के मामले में बस्तर, दंतेवाड़ा, कांकेर जैसे नक्सली गढ़ में देश और राज्य के औसत से कहीं आगे है. स्त्री-पुरुष अनुपात बेहतर होने से जनसंख्या वृद्धि दर तेज होनी चाहिए. लेकिन यहां उल्टा हो रहा है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया की तरह बस्तर से भी आदिवासी समाज लुप्त हो जाएगा?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और बस्तर क्षेत्र पर काम कर चुकीं प्रो. नंदिनी सुंदर कहती हैं, ‘‘कनाडा-ऑस्ट्रेलिया में बच्चों को मां-बाप से जबरन लेकर हॉस्टल में रखा जाता था और छत्तीसगढ़ में भी यही किया जा रहा है. जबकि ऑस्ट्रेलिया में जनजाति के लुप्त होने की वजह से वहां के पीएम को माफी तक मांगनी पड़ी थी.’’ वे सलवा जुडूम और कॉम्बिंग ऑपरेशन को आबादी दर में गिरावट की मुख्य वजह मानती हैं. उनका कहना है, ‘‘तनाव के माहौल में बच्चे पैदा नहीं हो रहे. ऐसे में जनजातियों के लुप्त होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.’’
ऐसे हालात तब हैं, जब वनों पर आदिवासियों के अधिकारों का ध्यान रखते हुए फॉरेस्ट ड्वेलर्स कानून 2006 इस बात की मान्यता देता है कि पीढिय़ों से वनों में रहने वाले जनजातीय लोगों का ही वन संपदाओं पर अधिकार है. हालांकि कई स्थितियों में इसका कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं है. इस कानून के तहत पीढिय़ों से वनों में रहने वाले लोगों को बिना उपयुक्त लिखा-पढ़ी के कोई भी विस्थापित नहीं कर सकता. निश्चित तौर पर दशक भर से राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह के लिए दशकीय आबादी वृद्धि दर के ये आंकड़े चिंताजनक हैं. वे कहते हैं, ‘‘इन आंकड़ों की गहराई में जाने की जरूरत है. लेकिन छत्तीसगढ़ में शहरीकरण और विकास की वजह से लोग समृद्ध हुए हैं, यह भी तथ्य है.’’ लेकिन आबादी दर में गिरावट पर राज्य के आदिम जाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप भी चिंता जाहिर करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘राज्यपाल ने मुझसे इस बारे में बात की थी. मैं मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और मुख्य सचिव से चर्चा कर इस बारे में ठोस कदम उठाऊंगा.’’
हिंसा-प्रतिहिंसा में पिसता समाज
नक्सली और प्रशासन के बीच दो पाटों में पिसने के बावजूद कुछ आदिवासी अपनी पुश्तौनी जमीन को छोड़कर राहत शिविरों में नहीं गए. ऐसे लोग सुरक्षा बलों के ऑपरेशन के वक्त पास के आंध्र के जंगलों में पलायन कर गए. सरकारी राहत शिविरों की हालत भी बेहद खस्ता है. बीजापुर के मौजूदा चेरपाल राहत शिविर में करीब 125 मिट्टी के छोटे-छोटे घर हैं, जिनमें अभी भी 500 परिवार रहते हैं. आदिवासियों की दुर्दशा के लिए प्रशासन के साथ-साथ नक्सली भी उतने ही जिम्मेदार दिखते हैं. नक्सलियों ने शिविर में रहने वाले ताती सन्नो का पैर सिर्फ इसलिए काट दिया क्योंकि वह उनकी मीटिंग में नहीं जाता था. शिविर में रहने वाले गोविंद पगरिकर इसलिए गांव में अपनी जमीन पर नहीं लौट रहे हैं क्योंकि नक्सलियों ने उपज में आधा हिस्सा देने की शर्त पर ही खेती की इजाजत दी है. वे कहते हैं, ‘‘आधा उन्हें देंगे, तो हम क्या कमाएंगे-खाएंगे.’’
इंडिया टुडे की पड़ताल में यह तथ्य प्रमुखता से उभरा कि जिस सलवा जुडूम को सरकार ने नक्सलवाद से निबटने का अनोखा हथियार बनाया था, यही आदिवासियों के पलायन की एक बड़ी वजह बनी. सुकमा जिले की कोनानगुड़ा बस्ती के राजा पोडियाम बताते हैं, ‘‘माओवादी और पुलिस के बीच दो पाटों में पिसने की बजाए गांव के बुजुर्गों ने अपने बच्चों को गांव के बाहर ही भेजना मुनासिब समझा.’’ आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनीष कुंजाम कहते हैं, ‘‘आदिवासियों के लिए सलवा जुडूम के बाद शुरू हुआ हिंसा का दौर सबसे घातक रहा. पचास हजार से ज्यादा आदिवासी स्थायी रूप से पलायन कर गए और बचे हुए लोग जो बारिश के दिनों में गांव छोड़कर जान बचाने को जंगलों में छिपे, बीमारियों के शिकार हो गए.’’
सलवा जुडूम के शुरू होने के बाद अकेले सुकमा जिले से 15,000 से ज्यादा लोग पलायन कर आंध्र प्रदेश के चित्तूर, चेरला आदि जंगलों में पनाह लिए हुए हैं. हिंसक दौर शुरू होने के बाद से 644 गांवों के दो लाख से ज्यादा लोग सीधे प्रभावित हुए और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पचास हजार से ज्यादा लोगों ने जान बचाने के लिए बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा जिलों में बने 21 राहत शिविरों में पनाह ली थी. हालांकि आबादी दर में कमी के लिए सुकमा के कलेक्टर पी. दयानंद क्षेत्र में जारी हिंसा को एक वजह मानते हैं. लेकिन आगे वे कहते हैं, ‘‘आदिवासी परंपरागत रूप से तंबाकू और मिर्च के खेतों में काम करने के लिए आंध्र के इलाकों में पीढिय़ों से जा रहे हैं, जबकि गांवों में रोजगार की कमी नहीं है.’’ रायपुर के गायत्री अस्पताल के डॉ. अरुण मढ़रिया, जो अस्पताल परिसर में ही नक्सली हिंसा से प्रभावित बच्चों का पुनर्वास केंद्र संचालित करते हैं, का मानना है, ‘‘शिविरों में यौन संबंध बनाने के लिए प्राइवेसी नहीं होती. साथ ही एक खास पीरियड में संबंध नहीं बन
परिवार नियोजन की साजिश?
क्या आदिवासियों को प्रलोभन देकर परिवार नियोजन कराया जा रहा है? नक्सली गढ़ में स्वास्थ्य सेवा का काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं, ‘‘जनजातीय इलाकों में संसाधनों का दोहन करने और उन पर कब्जा जमाने के लिए ही सरकारें ऐसी कोशिश करती है.’’ छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजित जोगी स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी को इसकी वजह मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘नक्सल प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में 95 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर काबिल डॉक्टर नहीं हैं. वहां आरएमपी डिग्री लेने वाले बिठाए गए हैं.’’ वे बताते हैं, ‘‘मैंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इन इलाकों में परिवार नियोजन बंद करा दिया था. लेकिन अब टारगेट पूरा करने को चोरी-छिपे नियोजन हो रहा है.’’
अविभाजित बस्तर के कलेक्टर और राष्ट्रीय एससी-एसटी आयोग के कमिश्नर रहे बी.डी. शर्मा इसके लिए पिछले 50 साल की सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘‘सरकार तनाव का माहौल न बनाए और लोगों को अपने घर वापस जाने दे, समस्या का समाधान हो जाएगा.’’ उनका मानना है कि इस तरह की स्थिति से लगता है कि कहीं न कहीं वैश्विक ताकतें चीजों को संचालित कर रही हैं.
तो जनगणना पर ही नहीं भरोसा?
जनगणना की अंतरिम रिपोर्ट के बाद राज्यपाल शेखर दत्त ने इस पर गंभीर चिंता जाहिर करते हुए रमन सरकार से जवाब तलब किया. तो हरकत में आई सरकार ने जिला कलेक्टरों के जरिए जन्म दर, मातृ मृत्यु दर, भुखमरी, पलायन जैसे हर संभावित मापदंडों के साथ आंकड़ों का विश्लेषण कराया. सबसे अधिक प्रभावित बीजापुर जिले की रिपोर्ट में जागरूकता की वजह से परिवार नियोजन, नक्सल गतिविधि से पलायन को मजबूर, मिर्ची आदि की खेती की मजदूरी के लिए आदतन पलायन और जिले में बढ़ी समृद्धि से हुआ पलायन जैसे चार कारण गिनाए गए हैं. लेकिन इस लंबी कसरत और आंकड़ों के समंदर में गोता लगाने के बावजूद राज्यपाल को भेजे जवाब में सरकार जनगणना के आंकड़ों पर ही सवाल उठाती दिख रही है.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘‘इन इलाकों में किसी भी तरह का सर्वेक्षण करना बेहद कठिन होता है.’’ खुद मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘‘इन इलाकों के हमारे सांसदों-विधायकों का मानना है कि अबूझमाड़ जैसे नक्सल प्रभावित गांवों में व्यापक सर्वे हुआ है या नहीं, इस बारे में केंद्र सरकार से बात करने की जरुरत है और जल्द ही सांसद-विधायक देश के जनगणना आयुक्त से इस मुद्दे पर मिलेंगे’’ हालांकि राज्य के आदिम जाति विभाग के सचिव मनोज पिंगुआ कहते हैं, ‘‘अभी तक की जांच में कोई गंभीर स्थिति नहीं दिखती. जनगणना के अंतिम आंकड़े और जाति जनगणना की रिपोर्ट आने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है.’’ लेकिन भारत के महापंजीयक सी. चंद्रमौलि कहते हैं, ‘‘अंतिम रिपोर्ट जल्द आएगी, लेकिन अंतरिम और अंतिम आंकड़ों में बहुत बड़ा अंतर नहीं हो सकता.’’ दुर्गम इलाकों में गणना करने वाले नहीं जा पाए होंगे, राज्य सरकार की इस दलील पर वे कहते हैं, ‘‘हमारे पास कलेक्टर से गणक तक के कंप्लीशन सर्टिफिकेट हैं.’’
हाइ-वे से उतरते ही विकास खत्म
इतना ही नहीं, सरकार के पास अपनी दलील को पुष्ट करने का कोई पुख्ता आधार भी नहीं है. सवाल है कि जब जंगल में बसे आदिवासियों तक प्रशासन और स्वास्थ्य केंद्र की पहुंच नहीं है तो जागरूकता कार्यक्रम कैसे पहुंच गया? पलायन का भी कोई आंकड़ा नहीं है.
आदिवासियों की विडंबना की तस्वीर जगदलपुर से बीजापुर जाते हुए रास्ते में सहज देखी जा सकती है. नेशनल हाइ-वे 16 गीदम पार करते ही सुनसान हो जाता है. चारों तरफ जंगल, बीच-बीच में गुजरतीं इक्का-दुक्का गाडिय़ां हिचकोले खाते सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ती हैं. आबादी का बिखराव और उसके घनत्व का बेहद कम होना आदिवासियों को उनके खुद के हाल पर  रहने को मजबूर करता है. राज्य सरकार की ऑनलाइन पीडीएस और बिजली सरप्लस के दावे की पोल बीजापुर की ओर बढ़ते हुए खुल जाती है. जहां इंडिया टुडे के पहुंचने से एक रात पहले हुई बारिश ने समूचे तंत्र को पंगु बना दिया. बिजली गुल थी, तो फोन के नेटवर्क ध्वस्त हो चुके थे.
खो गई आदिवासियों की आवाज
अकेले बस्तर की 12 विधानसभा सीटों में से 11 पर बीजेपी का कब्जा है. हालांकि यह भी तथ्य है कि सुदूर आदिवासी इलाके के लोग मतदान केंद्र दूर होने से वोट डालने ही नहीं जाते. इस बारे में बीजापुर के डिप्टी कलेक्टर आर.ए. कुरुवंशी की दलील है, ‘‘चुनाव आयोग से विशेष अनुमति लेकर हम मुख्य सड़क के नजदीक मतदान केंद्र बनाते हैं, ताकि कैजुअल्टी कम हो. वैसे जब गांवों में केंद्र बनता है तब भी लोग वोट डालने नहीं पहुंचते हैं.’’
मतदान केंद्र की दूरी सुदूर इलाके से करीब 20 से 40 किमी तक है. उसूर का मतदान केंद्र कोतापल्ली से 40 किमी दूर है तो पामेड़ का केंद्र पालागुड़ा से 22 किमी दूर. अजित जोगी का दावा है कि बस्तर क्षेत्र में 80 फीसदी फर्जी वोट पड़ते हैं, इसलिए इस बार वे चुनाव आयोग से बूथ एजेंट को रिकॉर्डिंग की अनुमति देने की मांग करेंगे. लेकिन रमन सिंह का कहना है कि जोगी भी पहले सत्ता में थे, उन्होंने क्या किया.
रमन सरकार के लिए ये आंकड़े चुनावी मुद्दा न बन जाएं, इसलिए वह अब जनगणना की अंतिम रिपोर्ट और जाति जनगणना का इंतजार करने की दलील दे रही है. इनमें विसंगति पाई गई तो सरकार दक्षिण में बस्तर यूनिवर्सिटी और उत्तर में सरगुजा यूनिवर्सिटी से एक स्वतंत्र सर्वेक्षण कराने की बात कर रही है.  वहीं समाजशास्त्री और मानव विज्ञानी जनजातियों के लुप्त होने की आशंका से इनकार नहीं कर रहे.

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