डिब्बाबंद भोजन – स्वास्थ्यप्रद या धीमा जहर




भारत सरकार के गलियारों में हाल ही में हुई एक बैठक ने एक नयी चुनौती के बढ़ने का संकेत दे दिया है. 26 अगस्त 2014 को खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हर सिमरत कौर और पेप्सी कम्पनी की अध्यक्ष इन्द्रा नूयी के बीच यह चर्चा हुई कि मध्यान्ह भोजन योजना (इसमें आठवीं कक्षा तक के 12 करोड़ स्कूली बच्चों को हर रोज उनके हक के रूप में भोजन दिया जाता है) में स्वास्थ्यकर प्रसंस्कृत भोजन दिए जाने के विषय पर चर्चा हुई. इस बैठक ने उनके सबके मन में एक भय पैदा कर दिया है, जो जानते हैं कि बड़ी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जिस तरह के पेय और खाने की सामग्री का उत्पादन और व्यापार करती हैं, उनमें बच्चों को केवल और केवल बीमार बनाने वाले तत्त्व हैं. 



शीतल पेय और डिब्बाबंद खाद्य सामग्री बनाने वाली कम्पनियाँ आंगनवाडी के पोषण आहार कार्यक्रम और स्कूल मध्यान्ह भोजन योजना में ठेका लेने की कोशिश कर रही हैं. यह कोई नयी कोशिश नहीं है. वर्ष 2006-07 में भी भारत की बिस्किट बनाने वाली कंपनियों ने तत्कालीन सरकार को प्रभावित करके मध्यान्ह भोजन योजना और आंगनवाड़ी में ताज़े-गरम पके हुए खाने की जगह प्रसंस्कृत भोजन की वकालत की थी, क्योंकि इससे उन्हें 35 हज़ार करोड़ रूपए का धंधा मिलता है और लत लगाने के लिए सरकारी कार्यक्रम. उनका मकसद था कि यह भोजन की आपूर्ति स्वयं सहायता समूहों के स्थान कुछ बड़ी कंपनियां करें. वास्तव में इन खाद्य सामग्रियों में परिरक्षक (प्रिज़र्वेटीव) के रूप में जिन रसायनों का उपयोग करती हैं, उससे उन खानों की लत लगती है. इन कंपनियों के लिए स्वास्थ्यप्रद भोजन का मतलब है कारखाने से निकला दिबाबंद भोजन. ये तो मानते हैं कि वह भोजन स्वच्छ है जिसे इंसान ने न छुआ हो. इस सोच को मान्यता देना देश की पोषण सुरक्षा के साथ सबसे बड़ा समझौता होगा.



इस विषय को हमें दो नज़रियों से देखना होगा. एक – जिस तरह से मध्यान भोजन कार्यक्रम में मिलने वाले खाने की गुणवत्ता पर सवाल उठे और कुछ ऐसी घटनाएं हुई, जिनमें भोजन में कीड़े, छिपकली और दूषित तत्त्व पाए गए और बच्चे बीमार भी हुए और उनकी मृत्यु भी हुई. इन दुर्घटनाओं के आधार पर मध्यान्ह भोजन योजना की बहुत आलोचना हुई और बंद करने की वकालत भी की गयी, किन्तु प्रश्न यह है कि जब सरकार ही प्राथमिक स्तर के बच्चे के लिए 3.5 और माध्यमिक स्तर के बच्चे के भोजन के लिए 5 रूपए प्रतिदिन का प्रावधान करती है, तो भोजन की गुणवत्ता के ऊँचे मानकों का पालन कैसे होगा? हर घटना बताती है कि सामुदायिक निगरानी जरूरी है, पर इसकी व्यवस्था  मज़बूत नहीं बनायी गयी. देश में कर अंचल में भोजन की एक संस्कृति होती है. यह संस्कृति क्षेत्र में उत्पादित होने वाली सामग्री के आधार पर आकार लेती है. मध्यान्ह भोजन योजना में अभी भी यह प्रावधान नहीं है कि हर गांव या बसाहट खुद यह निर्णय ले सके कि बच्चो के भोजन में स्थानीय सामग्री हो. मूल निर्णय तो सरकारें ही लेती हैं कि प्रदेश-देश के बच्चे क्या खाएंगे! अब जरा सोचिये भारत सरकार निर्णय का हक अपने तईं क्यों रखती है? ताकि वे पेप्सी कंपनी के साथ वाणिज्यिक और व्यापारिक समझौता कर सकें.



अब हम दूसरे पक्ष पर आते हैं. वह पक्ष है भोजन के स्वास्थ्यप्रद होने का. जरा इस बात से अंदाज़ा लगाईये कि दुनिया भर में आज तक एक भी ऐसा वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ है, जो यह कहता है कि प्रकृति भोजन सामग्री की तुलना में प्रसंस्कृत (डिब्बा या पैकेट बंद) खाना स्वास्थ्यकर है. वास्तव में भोजन को डिब्बे या पैकेट में रखने की शुरुआत यात्राओं में सहूलियत के नज़रिए से हुई थी, पर आज इसे एक सामान्य व्यवहार बना कर बाजार में रख दिया गया है. यह एक साधारण की समझ का बिंदु है कि खाने की किसी भी सामग्री को लंबे समय तक रखने के लिए उसमें कुछ रसायन मिलाए जाते हैं या उसे तेल में तल कर रख जाता है. कुछ सामग्रियों में तेल और नमक मिला कर सुरक्षित रख जाता है. रीडर्स डाइजेस्ट में प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक पैकेज्ड खाने में चार घातक तत्व होते है. पहला है ट्रांसफेट –  यह खराब किस्म का वसा है, जो इंसान की धमनियों में जाकर जम जाता है. मक्खन, घी, नारियल तेल, सरसों के तेल में पाया जाने वाला वसा स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है, पर इनके विकल्प के रूप में आंशिक हायड्रोजेनेटेड वसा का उपयोग बाजार में मिलने वाली सामग्री में खूब उपयोग होता है. पैकेज्ड खाने के कारण अमेरिका में हृदयघात से 30 से 100 हज़ार ऐसी मौतें होती हैं, जिनमें इस भोजन से मिलने वाला ट्रांसफेट अहम भूमिका निभाता है.





परिष्कृत (रिफाइंड) अनाज से बनी सामग्री जैसे सफ़ेद ब्रेड, कम रेशे वाले अनाज से बनी शर्करा युक्त सामग्री, सफ़ेद चावल, सफ़ेद अनाज पास्ता समेत आपको और भी नाम जानी मानी कंपनियों के जरिये सुनने को मिल जायेंगे. जब आप परिष्कृत अनाज से बनी ये सामग्रियां खाते हैं, तो ह्रदयाघात की सम्भावना 30 प्रतिशत बढ़ जाती है. यह अध्ययन कहता है कि जब कोई उत्पाद यह दावा करे कि सामग्री 7 अनाजों या गेहूं के आटे से बनी है, तो किसी भुलावे में मत आईये. यह धोखा है. 7 अध्ययनों से पता चला कि सम्पूर्ण अनाज (जिसका कोई भी हिस्सा निकाला नहीं गया हो) खाने वालों में हृदयाघात का खतरा 20-30 प्रतिशत कम पाया गया. तीसरा घातक तत्व है नमक. हम नमक सोडियम नामक तत्व पाने के लिए खाते हैं. इससे दिमाग और शरीर संचालन के बीच सामान्य बनता है, खून से दाब को नियंत्रित रखता है, पानी का संतुलन बना कर रखता हैं, मांस पेशियों और दिल के बीच संपर्क बनाता है. हमारी जरूरत का तीन-चौथाई सोडियम हमें अनाजों, सब्जियों और फलों से मिल जाता है. परन्तु प्रसंस्कृत भोजन में यह बहुत ज्यादा मात्रा में होता है. डिब्बा बंद सूप, चटनी, सॉस, बर्गर और मांस सामग्री में बहुत ज्यादा मात्रा में डाला जाता है. ज्यादा सोडियम होने से शरीर में पानी का संग्रह बढ़ता है, और ह्रदय को खून का प्रवाह बढ़ाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करना पड़ती है. यही उच्च रक्तदाब की शुरुआत होती है. एक व्यक्ति को 1500 मिलीग्राम सोडियम की जरूरत होती है, जो हमें चाय की तीन चौथाई भरी चम्मच से मिल जाता है. एक बर्गर हमें इससे ज्यादा सोडियम दे देता है. ज्यादा सोडियम नाइट्रेट सांस की बीमारी, अस्थमा और फेंफडों की कार्यप्रणाली में अवरोध पैदा करता है. 



इसी तरह डिब्बाबंद सामग्री में हाई फ्रक्टोस कार्न सिरप (एचएफसीएस) और शकर का भी ऊँची मात्रा में उपयोग होता है. जहाँ एचएफसीएस का ज्यादा उपयोग होता है, वहाँ मोटापा और मधुमेह से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत बढ़ी है. इससे उच्च रक्तदाब, लत लगने, मेयोकार्डियल इन्फ्रेक्शन, डिसलिपडरमिया,  पेंक्रियायटिस, हेप्तिक डिसफंक्संस की समस्या होती है. किसी की आर्थिक लाभ को सुनिश्चित करने के लिए हम बच्चों के हितों को दाँव पर लगाने के लिए भी तैयार हैं.


सचिन कुमार जैन

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