विकराल होता सामाजिक सुरक्षा का सवाल

मध्यप्रदेश में विकलांगविधवानिराश्रित और अबोध बच्चों को न तो समाज का संरक्षण प्राप्त हैन ही राज्य उनके प्रति अपनी कोई जवाबदेही मानता है





छतरपुर में नौगांव तहसील के धरमपुरा गांव की विकलांग महिला नन्हींबाई और उनके दृष्टिहीन पुत्र की विकलांग पेंशन दो वर्ष पूर्व अचानक बन्द कर दी गई। कारण बताया गया कि उनकी पेंशन कारगिल युध्द के बाद बने कारगिल कोष में राष्ट्र की सुरक्षा के लिए जमा की जा रही है। यह परिवार आज पांच हजार रूपये के कर्ज में है क्योंकि उनकी सामाजिक सुरक्षा राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर छीन ली गई। बड़वानी जिले में पाटी में रहने वाला नाथू आदिवासी मानसिक रूप से विकलांग है। रहने को गांव में एक छोटी सी झोंपड़ी है जिसमें करवट लेने में भी एहतिहात बरतनी पड़ती है। उसकी देखभाल करते हुये पत्नी को कभी-कभार मिलने वाली मजदूरी से महरूम हो जाना पड़ता है। खाने के लाले पड़ना तो जैसे रोजमर्रा की बात है। गांव की सभा, पंचायत और समुदाय सब कोई मानते हैं कि नाथू को सरकारी सहायता मिलना चाहिए, जो उसे कभी मिल नहीं पाई। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने आदेश में कहा है कि हर उस परिवार को सस्ते राशन वाली अन्त्योदय अन्न योजना का लाभ मिलना चाहिये जिसमें मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति हो। इसी उम्मीद के सहारे नाथू ने भी अन्त्योदय कार्ड के लिए आवेदन दिया था परन्तु मानसिक रूप से विकलांग होने का प्रमाण पत्र संलग्न न होने के कारण उसे अपात्र करार दिया गया।


मध्यप्रदेश में गरीबी और भूख के साथ मानसिक विकलांगता की मार झेलने वाले 70 हजार लोगों के लिये जीवन किसी शाप से कम नहीं है। उन्हें अपने हक हासिल करने के लिये प्रमाण पत्र दिखाना होता है और यह प्रमाण पत्र सरकारी मनोचिकित्सक द्वारा ही दिया जाता है। यह एक संकट का मुद्दा है क्योंकि मध्यप्रदेश के दूसरे कई जिलों की तरह बड़वानी के जिला चिकित्सालय में भी कोई विशेषज्ञ मनोचिकित्सक नहीं है। स्वाभाविक है कि ऐसी अवस्था में उन तक योजनाओं का लाभ प्रशासनिक विसंगतियों के कारण नहीं पहुंच पा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में कुल 11.31 लाख विकलांगों में से 8.9 लाख (लगभग 78 प्रतिशत) विकलांग गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। परन्तु इनमें से केवल 3.8 लाख लोगों को ही सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना का लाभ मिल रहा है। विश्लेषण बताते हैं कि विकलांग लोगों की पहचान न होने, प्रमाण पत्र न होने और भ्रष्टाचार के कारण अब भी बहुत बड़े हिस्से को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल पा रही है। ऐसा साफ तौर पर महसूस होता है कि सरकार विकलांगता को गरीबी का मापदण्ड नहीं मानती है और इसके प्रमाण हैं गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की पहचान के सूचकांक। इन सूचकांकों में दो-तीन जोड़ी कपड़ों, पंखों, साईकिल को तो गरीबी का सूचक माना है परन्तु विकलांगता को किसी भी रूप में दर्ज ही नहीं किया गया।


विकास और समतामूलक समाज की स्थापना की दिशा में हो रहे प्रयासों में अब भी छिपी हुई गरीबी को भोगने वाले समूहों को नजरंदाज किया जा रहा है। उन समूहों की समस्याओं को व्यापक समस्याओं से अलग करके देखने का नजरिया जिस तरह विकसित हुआ है उससे उनकी पीड़ा चरम स्तर पर पहुंची है। इंसानी समाज का एक हिस्सा, जिसे वाल्मिकी समाज और हैला जाति के रूप में जाना जाता है, आज भी मानव मल की सफाई करने का काम करता है। इस परम्परा को रोकने के लिये कानून बने, अपराधी के लिये सजा हो गई परन्तु उनकी दूसरे समुदायों द्वारा की जाने वाली उपेक्षा और नजरों में चुभो देने वाली छुआछूत की भावना को किस तरह समाप्त किया जायेगा? भौंरासा (जिला-देवास) की शोभा बाई पांच सौ रूपये के एवज में पचास घरों का मैला साफ करती थीं। उनके परिवार में छह बेटियां हैं और पति विकलांग। आखिकार गरिमा की खातिर उन्होंने यह काम छोड़ दिया; सोचा यह था कि कुछ और व्यवसाय या मजदूरी कर लेंगे। पर जब से मैला ढोने का काम छोड़ा है तब से उन्हें पूरे इलाके में मजदूरी तक नहीं दी गई, राशन की दुकान से राशन भी नहीं मिलता है। आत्म सम्मान की खातिर उन्हें रोटी के लाले पड़ गये और सरकार की नीति के अनुरूप मैला ढोने का काम छोडने के कारण उनके बेटे को पढ़ने के लिये मिलने वाला वजीफा भी बंद कर दिया गया। सवाल यह है कि क्या सरकार शोभाबाई जैसे 18 हजार मैला ढोने वाले परिवारों को यह अमानवीय व्यवसाय करते रहने के लिये प्रेरित कर रही है? जब भी गरीबी से लड़ने की बात की जाती है तब उस लड़ाई का मतलब होता है गरीबी को बढ़ाने, स्थाई बनाने, शोषण को प्रोत्साहित करने वाली प्रक्रिया के विरूध्द संघर्ष करना। गरीबी को केवल भोजन की उपलब्धता और उपभोग की मात्रा से मापा नहीं सकता है।


हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भेदभाव और सामाजिक विसंगतियां अपने आप में गरीबी को विस्तार देने वाले सबसे बड़े कारण हैं।


आर्थिक एवं सांख्यिकीय आधारों पर यह माना जाता है कि हमारी सामाजिक परिस्थितियों मे लगभग सात से दस फीसदी परिवार ऐसे हैं, जो प्राकृतिक एवं मानव निर्मित आपदाओं, विकलांगता और विसंगतिपूर्ण सरकारी नीतियों के कारण खाद्य असुरक्षा की सबसे विकट अनुभवों का सामना करते है। अब ऐसा वर्ग विस्तार पाने लगा है क्योंकि आतंकवाद और साम्प्रदायिक दंगों के कारण भुखमरी से जूझने वाले परिवारों की संख्या हर वर्ष तेजी से बढ़ रही हे। पिछले एक दशक में 13 लाख परिवारों को इन कारणों से गरीबी को अपनाना पड़ा है।


सामान्य दैनिक जीवन में हर कोई फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों और परिवारों पर नजर डाल कर गुजर जाता होगा। मध्यप्रदेश में 23 हजार परिवार किसी न किसी रूप में फुटपाथों पर रहते हैं और इन्हें गरीबी से जुड़ी किसी कल्याणकारी योजना का लाभ नहीं मिलता है क्योंकि फुटपाथ पर रहने वालों का कोई स्थाई निवास नहीं होता है और स्थाई निवास (पता) न होने के कारण उनका राशन कार्ड नहीं बनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि राशन कार्ड केवल राशन दिलाने वाला नहीं बल्कि इस देश के नागरिक होने का प्रमाण देने वाला दस्तावेज भी है पर यह फुटपाथ पर रहने वालों को नहीं मिल पाता हैं। यह वही वर्ग है जो मौसम की मार को उसके चरम पर भी झेलता है और उसकी उपेक्षा की जाती है। जीवन में अस्थाईत्व होने के कारण वे चूल्हा भी जला नहीं पाते हैं। विडम्बना यह है कि ऐसे आश्रयहीन बच्चे या तो खाना खरीदते हैं या भीख मांगते है या फिर कचरे में से खाने के टुकड़े बीन उन्हें अपनी भूख मिटाने की कोशिश करना पड़ती है। संकट इतना गहरा है कि वे अपनी कमाई से कुछ बचत भी नहीं कर सकते है क्योंकि तब सवाल यह होता है कि उस बचत को रखेंगे कहां?


आधुनिक सिध्दान्तों में गरीबी से निपटने की कार्ययोजना में सक्षम को प्राथमिक स्थान देते हुये किसी भी कारण से असक्षम हुये लोगों की उपेक्षा की जाती है। यह एक सामाजिक नजरिया बन गया है। हर रोज अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों को संचालित करते हुये हम किसी न किसी भीड़ में से गुजरते हैं और उस भीड़ में कौन होता है। यह शायद ही हमने कभी गौर किया हो। उस भीड़ में होते हैं वृध्द, कचरा बीनने और फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे, मानसिक शारीरिक रूप से विकलांग लोग, और कभी-कभी पेट की खातिर देह व्यापार करने वाली लड़कियां। ये कभी भी गरीबी की परिभाषा में शामिल नहीं किये जाते हैं। इनसे सम्बन्धित यदि कुछ होता है तो बंदीगृह या सुधार गृह की स्थापना। नई संस्थायें बना कर इन्हे 'सभ्य समाज' से अलग कर दिया जाता हैं ताकि वे समाज की सभ्यता को नुकसान न पहुचा सकें और इस तरह समाज और सरकार ऐसे बड़े समूह के प्रति अपनी जवाबदेही से निजात पा लेती है। हमारे आस-पास ही ऐसे कई लोग हैं जो छापामार गरीबी से जूझ रहे हैं, उनके बारे में एक मर्तबा ठोस कदम उठाने की जरूरत है। यह जरूरी इसलिए है क्योंकि काम का अधिकार इन वर्गों को अपने दायरे में नहीं लेता है और ये काम के बदले अनाज वाली सोच का सामना नहीं कर पायेंगे। ऐसे में सामाजिक सुरक्षा के दायित्व को पुर्नजीवित करने की पहल करना होगी।



सचिन कुमार जैन 

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