जान देते किसान





कृषि विकास की जिस दर को चार फीसदी के जादुई आंकडे तक पहुंचाने में केंद्र सरकार के महारथियों को पसीने छूट रहे हैं, उसे 18 फीसदी तक लाकर पीठ ठुकवाने वाली मध्‍यप्रदेश सरकार को विधानसभा सत्र के दूसरे ही दिन किसान आत्‍महत्‍याओं के सरकारी आंकडों ने ठंडा कर दिया है। राज्‍य के गृहमंत्री उमाशंकर गुप्‍ता ने कांग्रेस के महेंद्र सिंह को दिए अपने जबाव में बताया है कि पिछले 2004 से 2011 के बीच के आठ सालों में मध्‍यप्रदेश के 10861 किसानों ने आत्‍महत्‍याएं की हैं। करीब हर छह घंटे में एक किसान की मौत का कारण सरकार के लिहाज से पारिवारिक विवाद, नशे की लत, बीमारी और रोजमर्रा की आर्थिक झंझटें हैं। पिछले साल के प्रेम में असफलता और शादी न हो पाने जैसे कारणों को इस बार खारिज करते हुए गृहमंत्री ने बताया है कि इनमें से कुल 16 किसानों ने कर्ज और आर्थिक तंगी के चलते अपनी इहलीला समाप्‍त की है। 


खेती को लाभ का धंधा बनाने के फेर में अब मध्‍यप्रदेश देश के उन पांच राज्‍यों में शामिल हो गया है जहां किसान अपनी आजीविका को केवल चलाए रखने की जुगत में असफल हो रहे हैं। बजट के पहले जारी होने वाले राज्‍य के आर्थिक सर्वेक्षण से साल-दर-साल यह बात उजागर हो रही है कि मध्‍यप्रदेश में अनाज, तिलहन, दलहन, मसाले, फल आदि की उत्‍पादकता और उत्‍पादन दोनों या तो रुक गए हैं या फिर कपास सरीखी एकाध फसल में मामूली से बढे हैं। मंडियों में आने वाला पंजाब की टक्‍कर का गेहूं दरअसल बढते रकबे और पडौसी राज्‍यों की अवैध आवक का कमाल है। 


मध्‍यप्रदेश समेत देश के दूसरे हिस्‍सों में कृषि और कृषकों की बदहाली को देखें तो पता चलता है कि यह गोरखधंधा उन्‍हीं इलाकों में सर्वाधिक प्रभावी है जहां साठ-सत्‍तर के दशक में 'हरित क्रांति' के झंडे गाडे गए थे। संकर बीजों, रासायनिक खादों, दवाओं, कीटनाशकों और भरपूर पानी की भारी लागत के भरोसे विपुल उत्‍पादन से लदी-फंदी 'हरित क्रांति' ने पहले के आत्‍मनिर्भर किसानों को बाजार के हवाले करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। जाहिर है, इस जद्दोजेहद में उत्‍पादन तो खूब बढा, लेकिन बाजार से लेकर लगाई जाने वाली लागत की तुलना में उत्‍पादनों के दाम नहीं बढ पाए। यहां तक कि हर साल केंद्र और राज्‍यों द्वारा घोषित किए जाने वाले समर्थन मूल्‍य भी किसान को फायदा नहीं दिलवा पाए। इस गफलत के चलते सिर्फ किसानी के काम में पारंगत किसान खेती छोडने तक को तैय्यार होते गए। 'राष्‍ट्रीय सेंपल सर्वे आर्गनाइजेशन' के अध्‍ययन ने इस बात की पुष्टि भी की कि देश के करीब 40 प्रतिशत किसान मौका मिलने पर खेती को छोडने के लिए तैय्यार हैं। 


खेती और किसानों की इस बदहाली से निपटने के लिए उद्योगों की रहनुमा केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार से लगाकर किसान पुत्र शिवराजसिंह चौहान की राज्‍य सरकार तक ने अपनी-अपनी तरफ से पूरा जोर लगाया। अलबत्‍ता, किसानों को बचाने की इन कोशिशों की बुनियाद में लागत या धन ही रहा, जबकि किसानी को बचाने के लिए उन नीतियों में बदलाव की दरकार थी जिनकी मौजूदगी में खेती को लाभ का धंधा नहीं बनाया जा सकता। महाराष्‍ट्र के विदर्भ में थोक में आत्‍महत्‍या करते किसानों को बचाने के लिए प्रधानमंत्री ने करीब साढे तीन हजार करोड रुपयों की राहत राशि तो उपलब्‍ध करवा दी, लेकिन सब्‍सीडी के जरिए लगभग मुफ्त में पैदा होने वाले अमरीकी कृषि उत्‍पादनों के आयात पर कोई रोक नहीं लगाई गई। नतीजे में हमारे किसानों को अपनी पैदावार की कीमत तक निकालने के लाले पड गए। लगभग ये तौरतरीके मध्‍यप्रदेश में भी आजमाए गए। यहां कर्ज पर ब्‍याज दर में कमी करने से लगाकर कृषि उपकरणों पर छूट देने के नुस्‍खों से किसानों को राहत दी गई। 


आर्थिक या उसकी दम पर दूसरे कृषि आदानों में दी जाने वाली सहायता आज के जमाने में किसानों को बचा नहीं पाएगी। उलटे आर्थिक मदद उद्योगों को ही और चांदी काटने का मौका देगी। किसानों की दुर्गति को बेहतरी में बदलने के लिए राज्‍य और केंद्र को अपनी किसान विरोधी उन नीतियों में बदलाव करना होगा जिनके चलते हमारा किसान भूमंडलीकृत बाजार में लगातार पिट रहा है।


राकेश दीवान 

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