गंगा-यमुना जैसा अधिकार नर्मदा को क्यों नहीं




हाल ही में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने देश की गंगा-यमुना नदियों को जीवित इकाई मानते हुए इन्हें वही अधिकार दी है, जो एक जीवित व्यक्ति को हमारे संविधान से स्वतः हासिल हैं। इससे पहले न्यूजीलैंड की नदी वांगानुई को भी ऐसा ही अधिकार मिल चुका है। हालांकि यह नदी वहाँ के माओरी अदिवासी समुदाय की आस्था की प्रतीक रही है और वे लोग इसे बचाने के लिये करीब डेढ़ सदी से संघर्ष कर रहे थे। 290 किमी लम्बी यह नदी अपना अस्तित्व खोती जा रही थी। बेतहाशा खनन और औद्योगिकीकरण से नदी के खत्म होने का खतरा बढ़ गया था। यहाँ की संसद ने इसके लिये बाकायदा माफी माँगते हुए कानून बदला और अन्ततः इसे जीवित इंसान की तरह का दर्जा देकर इसे प्रदूषण से बचाने की दुनिया में अपनी तरह की अनूठी पहल की।


अब न्यायालय से गंगा-यमुना को जीवित इकाई मान लिये जाने के फैसले के बाद देश के नदियों, विविध जलस्रोतों और उसके पर्यावरणीय तंत्र से जुड़े जंगल, पहाड़ और तालाबों को भी इसी तरह की इकाई मानकर उन्हें प्रदूषण से बचाने की माँग जगह-जगह से उठने लगी है। खासतौर पर मध्य प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा को भी यह दर्जा देने की माँग को लेकर कई जन संगठन सामने आये हैं। गंगा की ही तरह नर्मदा यहाँ के लोगों की आस्था से गहरी जुड़ी ही है, हमारे देश की पाँचवी सबसे बड़ी और सदानीरा नदी भी है। मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से से होकर यह बहती है और जीवनदायिनी कही जाती है।

जहाँ–जहाँ से बहती हैं, वहाँ धरती को हरियाली की चुनर ओढ़ाती हुई लाखों किसानों की खेती भी लहलहाती है। बिजली, पीने का पानी और जंगल के साथ यहाँ के पर्यावरण से इसका गहरा नाता है। दरअसल यहाँ नर्मदा नदी से आगे बढ़कर सभ्यता और संस्कृति को ही अपने में समेटते चलती है। इसीलिये यहाँ के लोग नर्मदा को कुँवारी बताते हुए भी माँ का दर्जा देकर पूजते हैं





सैकड़ों सालों से यह आस्था होते हुए भी इधर के बीते कुछ सालों में नर्मदा नदी के अस्तित्व पर संकट बढ़ा है। एक तरफ लोग इसे माँ मानकर पूजते रहे दूसरी ओर तमाम गन्दगी और जहर इसके पानी में उड़ेलते रहे। यहीं से शुरू हुए इस सदानीरा और पवित्र नदी के बुरे दिन। मूर्तियाँ, पूजन सामग्री से लेकर शहरों और कस्बों की नालियों का गन्दा सीवेज, खेतों में कीटनाशक और रासायनिक खादों का जहर, मुर्दों की राख, कूड़ा-करकट सब कुछ इसी में प्रवाहित कर 'पुण्य' की कामना करते रहे। लोगों के लालच ने इसे भी गंगा की ही तरह बुरी तरह प्रदूषित कर दिया। 

सरकारों ने दूर-दूर के लोगों की प्यास बुझाने के लिये सैकड़ों किमी लम्बी पाइपलाइन बिछाकर इसके पानी का मनमाना दोहन किया तो बिजली के नाम पर जगह-जगह बड़े-बड़े बाँध बनाकर इसे रोक दिया गया। रेत माफिया इसकी छाती से हर दिन हजारों डम्पर रेत का अवैध खनन कर रहा है। जंगल कट रहे हैं। यही वजह है कि कभी पूरे साल लहर-लहर बहने वाली नर्मदा अब मार्च के साथ ही कई जगह छिछली होने लगती है तो कहीं सूखने लगती है। इन दिनों नर्मदा में जलकुम्भी तैरने लगी है।

ऐसी स्थिति में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि इसे जीवित इंसान समझा जाये ताकि इसके मनमाने दोहन पर रोक लग सके। इसे प्रदूषित होने से कानूनी तौर पर बचाया जा सके। रेत माफिया के खिलाफ सख्त कार्यवाही हो सके और सबसे बड़ी बात तो यह कि नदी के प्राकृतिक तंत्र को संरक्षित किया जा सके।

नर्मदा नदी की पदयात्राएँ करते हुए नदी पर कई किताबें लिख चुके वरिष्ठ लेखक अमृतलाल वेगड़ बड़े दुःख के साथ कहते हैं- "पहले हम नर्मदा से माँगते थे, अब नर्मदा मैया हमसे माँगती है कि-बेटा मुझे गन्दा न करो, मुझमें जहरीले रसायन मत बहाओ, मुझे नदी ही रहने दो, नदी से नाला मत बनाओ। जो नदी को गन्दा करता है, वह बहुत बड़ा अपराध करता है। जब मनुष्य असभ्य था, तब नदियाँ स्वच्छ हुआ करती थीं। आज मनुष्य कथित रूप से सभ्य है तो नदियाँ गन्दी ही नहीं बल्कि विषाक्त कर दी गई हैं। यह आत्मघाती कदम है। हमें नदियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को बन्द करना होगा। उन्हें प्रदूषण से बचाने के लिये तमाम जतन करने होंगे।"

उन्होंने यह भी कहा कि हमें यदि अपना अस्तित्व बचाना है तो प्रकृति के प्रति स्वामी भाव नहीं बल्कि मैत्री भाव अपनाना होगा। नदियाँ जीवित या जागृत यज्ञकुंड हैं। यज्ञकुंड में हड्डी और गन्दगी डालना राक्षसों का काम है। हमारी नदियाँ इतनी बीमार हैं कि खतरे की घंटी बज चुकी है। ऐसे में नदी को स्वस्थ-स्वच्छ बनाने के लिये सख्त कानून बनाने होंगे जन को भी जागृत होना होगा। कभी प्रकृति ने संस्कृति को जन्म दिया, आज जरूरत है कि संस्कृति अपना फर्ज निभाते हुए प्रकृति की रक्षा करे।

जलपुरुष के नाम से पहचाने जाने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं- "मध्य प्रदेश सघन वनों और अद्भुत जल संरचनाओं की भूमि है। प्रकृति ने यहाँ प्रचुर जंगल दिये हैं तो नर्मदा जैसी विशाल और अद्भुत नदी भी दी है। यह सदियों-शताब्दियों से अपने निश्छल स्वरूप में न केवल बहती आई है, बल्कि मानव सभ्यता को भी प्राण देती आई है। यह दुर्भाग्य है कि विकास को इस तरह परिभाषित किया गया है कि उसमें प्रकृति का दोहन नहीं बल्कि शोषण होता है।
मनुष्य की यह प्रवृत्ति पूरी दुनिया को ऐसे संकट की ओर ले जा रही है, जिससे निपटना मनुष्य के बस में नहीं होगा। कथित विकास से नदी और प्रकृति पर बढ़ते दबाव ने धरती का स्वास्थ्य ही बिगाड़ दिया है। यदि अब भी दीर्घकालीन उपाय नहीं किये गए तो संकट तेजी से हमारी ओर बढ़ता जाएगा।
हमें यह समझना होगा कि मानव को यदि स्वस्थ, सुरक्षित और स्वच्छ वातावरण में रहना है तो प्रकृति के साथ तालमेल बैठाना होगा। नदियों, जल संरचनाओं को स्वस्थ, स्वच्छ और व्यवस्थित रखना ही होगा। मगर फिलहाल तो मध्य प्रदेश की जनता में वह उत्साह या संकल्प कहीं नजर नहीं आता है। प्रदेश सरकार ने नर्मदा सेवा यात्रा निकालकर नर्मदा के प्रति जनजागृति का अच्छा प्रयास तो किया है लेकिन ऐसे प्रयासों के बजाय स्थायी काम करने होंगे।"


उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि नर्मदा से दबाव हटाने के लिये अन्य नदियों और जल संरचनाओं को भी सुधारना होगा। जितना पानी खेतों और उद्योगों को चाहिए, उससे ज्यादा पानी बरसता है। उसे सहेजने का काम करना होगा। नर्मदा में मिलने वाले नालों को तुरन्त रोकना होगा। ईमानदार कोशिशों से ही नर्मदा बची रह सकेगी।

नर्मदा को बचाने के लिये उसे इंसानी अधिकार मिलना जरूरी है। यह अकेली नर्मदा को बचाने के लिये ही नहीं अपितु मनुष्य और प्रकृति के लगातार बिगड़ते और संकुचित होते जा रहे सम्बन्धों को फिर से मजबूत बनाने की भी कवायद है। अब सिर्फ बातों से हालात बदलने वाले नहीं हैं, जरूरत इस बात की है कि अब जमीनी काम करते हुए अपने पर्यावरण के लिये कदम उठाए जाएँ और उन्हें अमल भी करें। 

इंसानी दर्जा मिलने से लोग नदियों को गन्दी करने से पहले सोचेंगे और हालात बदल सकते हैं। नदियों को हमारे यहाँ तो सदियों से माँ के रूप में इंसानी हक मिला हुआ है पर अब न्यायालयीन शब्दावली में इसके प्रयुक्त होने से दुनिया भर में नदियों के अस्तित्व की रक्षा मुक्कमिल हो सकेगी। इनसे नदियों के प्रति लोगों का नजरिया भी बदल सकेगा।


 मनीष वैद्य


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