श्योपुर जिले के पातालगढ़ गांव की गुड्डी बाई ने 16 मई को एक बच्चे को जन्म दिया था और इसके ठीक 15 मिनट बाद उस नवजात शिशु के होंठो पर चिपचिपा गुड़ चिपका दिया ताकि उसके स्वाद से बच्चा न रोये। उस नवजात शिशु को गुड्डी ने अपना दूध क्यों नहीं पिलाया; इस बुध्दिजीवी सवाल का उसने एक कड़वे से सच के साथ जवाब दिया कि जब मैंने ही तीन दिन से रोटी नहीं खाई है तो दूध कहां से उतारूं?
चौंकिये मत ! तीसरा राष्ट्रीय परिवार स्वस्थ्य सर्वेक्षण इस तकलीफदेय सच्चाई को उजागर कर रहा है कि हमारे समाज में महिलाओं के शरीर में खून की कमी होती जा रही है। जहां आठ साल पहले मध्यप्रदेश में हर सौ में से 49.3 महिलायें खून की कमी से जूझ रही थीं, वहीं संख्या अब बढ़कर इस साल 57.6 हो गई है। महिलाओं के बिगड़ते पोषण के समीकरण में भेदभाव और उनके साथ होने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार भी गंभीर भूमिका निभाता है क्योंकि इसतीन बड़ी संख्या में पुरूष खून की कमी के शिकार नहीं हैं। अब 24.3 फीसदी पुरूष इस श्रेणी में आ रहे हैं।
एक तरफ तो 73 फीसदी महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध नहीं हैं वहीं दूसरी ओर यह भी एक सच्चाई है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में रोटी का अधिकार भी उसे उपलब्ध नहीं हैं। यह तर्क बेमानी है कि गरीबी के कारण अनाज न होने से औरत भूखी रहती है। यदि ऐसा होता तो 60 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की शिकार नहीं होती। वास्तविकता यह है कि वर्ग कोई सा भी हो, उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग सभी वर्गों की औरतों को उनकी जरूरत के अनुरूप पोषणयुक्त पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिलता है। मध्यप्रदेश का मानव विकास प्रतिवेदन, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के हवाले से बताता है कि प्रदेश में 20.3 फीसदी महिलायें ही हर रोज दूध या दही पाती हैं जबकि 43 फीसदी को ही दाल मिलती है। इस स्थिति में जब हम फलों पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि केवल 5 फीसदी महिलाओं को फल खाने को मिलते हैं। और 0.9 पतिशत को अण्डे और आधा फीसदी औरतों को मांसाहार करने का मौका मिलता है। यह आंकड़े केवल अर्थव्यवस्था की कोख से पैदा नहीं हुये हैं बल्कि सच यह है कि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था औरत को शरीर और मन से इतना कमजोर बना देना चाहती है कि वह राजनैतिक सत्ता के लिये संघर्ष न कर सके और पुरूष का यौनिकता पर नियंत्रण बन रहे।
भरपेट रोटी का मुद्दा वैसे तो गरीबी और अमीरी के बीच में बांट दिया गया है, परन्तु यह एक सतही सिध्दान्त है कि आर्थिक संकट ही सतत् भुखमरी का कारण है। किसी भी परिस्थति में यह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि हमारा समाज अमीर-गरीब वर्गों में तो केवल एक निहित उद्देश्य के तहत बंटा हुआ है। यथार्थ यह है कि यह समाज औरत और पुरूष के बीच में बंटा हुआ है और यह विभाजन पितृसत्तात्मक राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक संदर्भों में एक अमानवीय व्यवस्था को स्थापित करता है। अगर भूख और गरीबी एक आर्थिक मुद्दा है तो सवाल यह है कि खेती के पूरे काम का तीन-चौथई हिस्सा अकेले पूरा करने वाली औरत ही अब शारीरिक रूप से सबसे कमजोर क्यों हैं? क्यों 70 फीसदी महिलायें खून की कमी और कुपोषण की शिकार हैं?
बात अब भूमण्डलीकृत हो चुकी है। मसला केवल गरीब और अमीर के बीच का भी नहीं है, अहम् मसला औरत और मर्द के बीच का है। बहुत ही सुनियोजित ढंग से यह स्थापित कर दिया गया है कि औरत समाज में उत्पादक की भूमिका नहीं निभाती है; वह तो घर पर रहती है; उत्पादक तो पुरूष है जो घर के बाहर संघर्ष करता है, मेहनत करता है और तब जाकर कहीं घर में चूल्हा जलता है। बहुत ही व्यावसायिक चतुराई से समाज ने इस व्यवस्था को हमारे मन-मस्तिष्क का सिध्दान्त बना दिया है। हम यह विश्लेषण करने को तैयार नहीं होते हैं कि जिस बिखरे जीवन को औरत एक रूप देती है उसमें भी संघर्ष है, उसमें भी श्रम है, परन्तु उसमें औरत को अपने निर्णय लेने और चुनाव करने की स्वतंत्रता नहीं है।
वह कौशल सम्पन्न है पर वह घर की देहरी नहीं लांघ सकती क्योंकि इससे परिवार के सम्मान को ठेस लगेगी। परिवार के सम्मान को सिध्दान्त बहुत ही सोचा-समझा षडयंत्र है। इस सम्मान को बचाने के लिये उसे घूंघट में रहना होगा। घूंघट की परम्परा को निभाने के लिये उसे चाहरदीवारी में रहना होगा। चाहर दीवारी में रहकर उन्हीं दायित्वों का निर्वहन करना होगा; जो दायित्व पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उसके लिये तय किये है। यह समाज जानता है कि उसे अवसर मिलते ही यह जोड़-घटाना भी होगा कि असलियत में उत्पादक की भूमिका निभाता कौन है? और तब पता चल जायेगा कि औरत की मौद्रिक उत्पादकता को समाज ने कर्तव्य, दायित्व, लाज, घरेलू काम, संवेदनशीलता, त्याग जैसे ही कई पदों के पीछे ढंक दिया है।
अगर सरकारी व्यवस्था पर एक नजर डाली जाये तो उसका नजरिया समझने के लिये बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। जब हम सरकार की नीति के अन्तर्गत सामाजिक सुरक्षा को परिभाषित करते हैं तो स्पष्ट होता है कि औरतों के लिये सामाजिक सुरक्षा के मायने उसके निराश्रित होने या विकलांग होने तक ही सीमित है जब उसे 275 रूपये प्रति माह की पेंशन मिलने लगती है परन्तु सामाजिक नजरिये से यह पेंशन उन्हें और अधिक वंचित और उपेक्षित कर देती है क्योंकि इस पेंशन की पात्रता के साथ ही उनकी व्यापक समाज से जुड़ी हुई पहचान पूरी तरह से खत्म हो जाती है। तात्कालिक जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य से शुरू हुई इस तरह की योजनायें अब सामाजिक जरूरत बन गई हैं और सरकार का दावा होता है कि वह भुखमरी रोकने के जतन कर रही है।
इसके साथ ही एक पक्ष यह भी है कि तेज विकास की प्रक्रिया में स्त्री का विकास और पुरूष के विकास की परिभाषा में भी लैंगिक भेद है। जब विकास की परिभाषा में कृषि, बागवानी, ट्रेक्टर या इसी तरह की ठोस जरूरतों के लिये योजनाओं की बात होती है तो पूरा 100 फीसदी हिस्सा पुरूषों के खाते में ही जाता है; औरतों को सूची में रखने का 'जोखिम' न सरकारी कर्मचारी उठाना चाहता है न ही ऋण देने वाले बैंक का प्रबंधक। वहीं दूसरी ओर बहुत दबाव के बाद जब सरकार को लगने लगा कि अब औरतें भी राजनीति के चेहरे को पहचानने लगी हैं तो शुरू हो गये आय सम्वर्धन कार्यक्रम। इन कार्यक्रमों का रूप भी 'स्त्रीयोचित' ही रखा गया यानी चूंकि बात औरतों की हो रही है इसलिये सहायता मिलेगी, अचार, बड़ी, पापड़ या सिलाई, कढ़ाई के काम के लिये। मध्यप्रदेश में महिलाओं ने ऐसे में 2700 लाख रूपये इकट्ठे किये हैं, परन्तु एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जहां पर उन्हें खेत का अधिकार या निर्माण कार्य का ठेका मिला हो।
काम का भेदभाव भी बहुत सोच समझ के साथ किया जाता है। जिस काम में गति है, भ्रमण है, रोचकता है, वह काम पुरूष करता है। जबकि जो काम उबाऊ है, नीरस है और मेहनत वाला है वह औरतों के हिस्सों में आता है। खेती का ही उदाहरण लें। मर्द जब पानी ढोयेगा तो वह या तो ट्रेक्टर पर ढोयेगा या फिर बैलगाड़ी पर; पर जब महिला ढ़ोयेगी तो सिर पर तीन मटके रखकर पैदल चल पड़ेगी। धान की बुआई और कटाई महिला करेगी क्योंकि घुटनों-छुटनों पानी में कमर झुकाकर यह काम करना होता है, पुरूष इसी फसल को ट्रेक्टर पर लादकर मण्डी या बाजार में बेचने चल देगा।
औरत के जीवन का वह चित्र किसी भी समुदाय या प्रदेश में रंग नहीं बदलता है जिसमें उसे सबसे बाद में बचा-खुचा भोजन खाते हुये दिखाया जाता है, पोषण महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि वह बासी भोजन को व्यर्थ जाने से बचायेगी। जिस सामाजिक और पारिवारिक पर्यावरण में वह रहती है, वह पर्यावरण उसके दुखदायी भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। पोषण, सुरक्षा, मनोरंजन और स्वतंत्रता के अभाव में एक बीमार जीवन पनपने लगता है। यही जीवन वृध्दावस्था में हर तरह से असुरक्षित होता है। प्रजनन अपने आप में प्रकृति की सबसे सार्थक और रचनात्मक विशेषता है और स्त्री उस विशेषता की वाहक है किन्तु वास्तविकता यह है कि यही विशेषता उसके लिये सबसे ज्यादा पीड़ादायक क्षण पैदा करती है। शरीर का दर्द हो चाहे मन की पीड़ा या फिर समाज की शंकायें सब कुछ प्रजनन से ही जुड़ा हुआ है। और सच यह है कि 43 फीसदी महिलाओं का प्रसव ही प्रशिक्षित दाई करवाती हैं और 77 प्रतिशत को किसी तरह की चकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने की जरूरत महसूस नहीं की जाती। हर दस हजार महिलाओं में से 54 महिलायें प्रसव के दौरान जीवन त्याग देती हैं और हर 48 में से एक महिला की मृत्यु का कारण भारत में गर्भावस्था या प्रजनन से जुड़ी समस्यायें होती हैं। माहवारी का मामला हो चाहे प्रजनन का, उसके जीवन की व्यवस्था परम्परा मान्यताओं और रूढ़ियों से तय होती है; जिनके मानवीय होने पर बहुत बड़े सवाल हैं। यह स्थिति बहुत गंभीर है क्योंकि उसे पोषण का अधिकार नहीं हैं।
सचिन कुमार जैन
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